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सोमः॑ पवते॒ सोमः॑ पवते॒ऽस्मै ब्रह्म॑णे॒ऽस्मै क्ष॒त्राया॒स्मै सु॑न्व॒ते यज॑मानाय पवतऽइ॒षऽऊ॒र्जे प॑वते॒ऽद्भ्यऽओष॑धीभ्यः पवते॒ द्यावा॑पृथि॒वाभ्यां॑ पवते सुभू॒ताय॑ पवते॒ विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्य॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒र्विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यः॑ ॥२१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सोमः॑। प॒व॒ते॒। सोमः॑। प॒व॒ते॒। अ॒स्मै। ब्रह्म॑णे। अ॒स्मै। क्ष॒त्राय॑। अ॒स्मै। सु॒न्व॒ते। यज॑मानाय। प॒व॒ते॒। इ॒षे। ऊ॒र्ज्जे। प॒व॒ते॒। अ॒द्भ्यऽइत्य॒त्ऽभ्यः। ओष॑धीभ्यः। प॒व॒ते॒। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। प॒व॒ते॒। सु॒भूतायेति॑ सुऽभू॒ताय॑। प॒व॒ते॒। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑ ॥२१॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:21


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा का कर्म्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् लोगो ! जैसे यह (सोमः) सोम्यगुण सम्पन्न राजा (अस्मै) इस (ब्रह्मणे) परमेश्वर वा वेद को जानने के लिये (पवते) पवित्र होता है, (अस्मै) इस (क्षत्राय) क्षत्रिय धर्म के लिये (पवते) ज्ञानवान् होता है, (अस्मै) इस (सुन्वते) समस्त विद्या के सिद्धान्त को निष्पादन (यजमानाय) और उत्तम सङ्ग करने हारे विद्वान् के लिये (पवते) निर्मल होता है, (इषे) अन्न के गुण और (ऊर्ज्जे) पराक्रम के लिये (पवते) शुद्ध होता है, (अद्भ्यः) जल और प्राण वा (ओषधीभ्यः) सोम आदि ओषधियों को (पवते) जानता है, (द्यावापृथिवाभ्यीम्) सूर्य्य और पृथिवी के लिये (पवते) शुद्ध होता है, (सुभूताय) अच्छे व्यवहार के लिये (पवते) बुरे कामों से बचता है, वैसे (सोमः) सभाजन वा प्रजाजन सबको यथोक्त जाने-माने और आप भी वैसा पवित्र रहे। हे राजन् सभ्यजन वा प्रजाजन ! जिस (ते) आप का (एषः) यह राजधर्म्म (योनिः) घर है, उस (त्वा) आप को (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये तथा (त्वा) आप को (विश्वेभ्यः) सम्पूर्ण दिव्यगुणों के लिये हम लोग स्वीकार करते हैं ॥२१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इन्द्रलोक सब जगत् के लिये हितकारी होता है और जैसे राजा सभा के जन और प्रजाजनों के साथ उनके उपकार के लिये धर्म्म के अनुकूल व्यवहार का आचरण करता है, वैसे ही सभ्य पुरुष और प्रजाजन राजा के साथ वर्त्तें। जो उत्तम व्यवहार, गुण और कर्म का अनुष्ठान करनेवाला होता है, वही राजा और सभा-पुरुष न्यायकारी हो सकता है तथा जो धर्मात्मा जन है, वही प्रजा में अग्रगण्य समझा जाता है। इस प्रकार ये तीनों परस्पर प्रीति के साथ पुरुषार्थ से विद्या आदि गुण और पृथिवी आदि पदार्थों से अखिल सुख को प्राप्त हो सकते हैं ॥२१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजकृत्यमाह।

अन्वय:

(सोमः) सोम्यगुणसम्पन्नो राजा (पवते) विजानीयात्, लेट्प्रयोगः (सोमः) राजसभायाः सभासत् प्रजाजनो वा (पवते) पूतो भवेत् (अस्मै) प्रत्यक्षाय (ब्रह्मणे) परमेश्वराय वेदाय वा (अस्मै) (क्षत्राय) राज्याय क्षत्रियाय वा (अस्मै) (सुन्वते) सर्वविद्यासिद्धान्तं निष्पादयते (यजमानाय) सङ्गच्छमानाय (पवते) (इषे) अन्नाय (ऊर्ज्जे) पराक्रमाय (पवते) (अद्भ्यः) जलेभ्यः प्राणेभ्यो वा (ओषधीभ्यः) सोमादिभ्यः (पवते) (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्य्यभूमिभ्याम् (पवते) (सुभूताय) सुष्ठु सत्याय व्यवहाराय (पवते) (विश्वेभ्यः) समस्तेभ्यः (त्वा) त्वाम् (देवेभ्यः) दिव्येभ्यो गुणेभ्यः (एषः) राजधर्म्मगुणग्रहणम् (ते) तव (योनिः) वसतिः (विश्वेभ्यः) अखिलेभ्यः (त्वा) त्वाम् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.२.२.१२-१६ ॥ तथा ब्रा० ३.१-९) व्याख्यातः ॥२१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वांसः ! यथाऽयं सोमोऽस्मै ब्रह्मणे पवतेऽस्मै क्षत्राय पवतेऽस्मै सुन्वते यजमानाय पवत इष ऊर्ज्जे पवतेऽद्भ्य ओषधीभ्यः पवते द्यावापृथिवीभ्यां पवते सुभूताय पवते, तद्वत् सोमः सभ्यजनः प्रजाजनोऽप्येतस्मै सर्वस्मै पवताम्। हे राजन् ! यस्य ते तवैष योनिरस्ति, तं त्वां विश्वेभ्यो देवेभ्यो वयं स्वीकुर्म्मस्तथा विश्वेभ्यो गुणेभ्यश्च त्वा त्वामङ्गीकुर्महे ॥२१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा चन्द्रलोकः सर्वस्मै जगते हितकारी वर्त्तते, यथा च राजा सभ्यजनप्रजाजनाभ्यां सह तदुपकाराय धर्म्मानुकूलं व्यवहारमाचरति, तथैव सभ्यजनप्रजाजनौ राज्ञा सह वर्त्तेताम्। य उत्तमव्यवहारगुणकर्म्मानुष्ठाता भवति, स एव राजा सभ्यजनश्च न्यायाधीशो भवितुमर्हति। यो धर्म्मात्मा जनः स एव प्रजायामग्र्यो गुणनीयोऽस्त्येवमेते त्रयः परस्परं प्रीत्या पुरुषार्थेन विद्यादिगुणेभ्यः पृथिव्यादिपदार्थेभ्यश्चाखिलं प्राप्तुं शक्नुवन्ति ॥२१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा चंद्र सर्व जगासाठी हितकारी असतो व राजा सभासद आणि प्रजा यांच्यावर उपकार करण्यासाठी धर्मानुकूल व्यवहार करतो तसाच व्यवहार सभ्य पुरुष व प्रजा यांनी राजाबरोबर करावा. जो उत्तम व्यवहार, गुणकर्माचे अनुष्ठान करणारा असतो. तोच राजा व सभा-पुरुष न्यायी असू शकतो. जो धर्मात्मा असतो तोच प्रजेमध्ये अग्रगण्य समजला जातो. याप्रमाणे परस्पर प्रेम व पुरुषार्थाने विद्या इत्यादी प्राप्त करून पृथ्वीपासून संपूर्ण सुख प्राप्त करू शकता येते.